रविवार, 25 जून 2017

अखबार : दैनिक दुर्घटनाओं का दस्तावेज!

आज रविवार है। दोपहर के 12 बज चुके हैं। मगर अभी तक मैंने कोई अखबार नहीं पढी। कोई किताब नहीं पढी।सिर्फ महिने भर के अखबारों को पलटा है। मेरी विगत 6-7 वर्षों की आदत थी कि हर रविवार सुबह योग - ध्यान करने के बाद एक पूरा हिन्दी अखबार और साथ में विशेषांक भी, हर पन्ना, हर छोटा-बड़ा समाचार और कभी-कभी तो विज्ञापन एवं पाठकों के पत्र भी पुरी तन्मयता से पढता। आखिर पाई-पाई का हिसाब जो चुकता करना है। मगर सच बताऊं तो मेरी इस तन्मयता ने मुझे दिल खोलकर तनाव दिया!!

हमारे 'प्रिंसिपल सर' कहा करते थे कि रोज कोई न कोई "अणुव्रत" लिया करो मगर सच तो यह है कि कष्ट में इश्वर और उलझन में ही गुरूजनों के उपदेश हमें याद आते हैं। मैंने साहस किया और 'सात रोज के लिए थोड़ा बड़ा वाला अणुव्रत' ले लिया कोई भी अखबार नहीं पढने का। नही पढा। अभी मस्त हूँ और कुछ विचार करने पर मन में यह प्रश्न उठने लगता है कि आखिर ये अखबार है किसलिए?? हम सबकी 'बी पी हाई' करने के लिए?  जिनका 'बी पी'  'लो' वो तो ठीक है पर 'नॉर्मल' और 'हाई' वाले का क्या?

ग्यारहवीं में हिन्दी में एक विषय था पत्रकारिता। तभी पढा था कि भारत में पहला अखबार 'बंगाल गजट' वायसराय हिक्की के द्वारा निकाला गया था। स्वाभाविक रूप से अंग्रेजी में होगा। अंग्रेजी सरकार का पक्षकार पत्र। आम जनता की समझ से सात समन्दर दूर! फिर बांग्ला, उर्दू के भी अखबार निकले। हिन्दी का पहला अखबार 'उदंत मार्तंड' 30 मई 1826 को इन बादलों के बीच चमका। साप्ताहिक पत्र के रूप में।और ज्यादा इतिहास पर चर्चा की तो इतिहासकार बनने का डर है पर एक बात जो बहुत से विद्वानों और शोधकर्ताओं से बात करने पर सामने आयी कि स्वतंत्रता पूर्व के हिन्दी अखबार 'जनता तक जननेता, क्रांतिकारी और देश की विभिन्न घटनाओं, के संदेश पहुँचाने का सशक्त माध्यम' थे। अंग्रेजी सरकार की जनविरोधी नीतियों और प्रशासन तथा उनके अमलों द्वारा किये जा रहे अत्याचारों को जनता को बताना और जनता की बात से सबको परिचित कराना, यह भूमिका निभाई थी हिन्दी अखबारों ने। जैसे कहां क्रांतिकारीयों ने ट्रेन लूटा, कहाँ अंग्रेज अत्याचारी अफसर की हत्या हुई, कहां अंग्रेजों ने जनता को नंगा कर पिटा, सङकों पर रेंग कर चलने के लिए मजबूर किया, कहां किसी अंग्रेज ने बलात्कार किया, डकैती आदि की खबरों के साथ-साथ गांधीजी ने कहां क्या कहा, अधिवेशन में क्या हुआ आदि खबरें होती थी। मोटे तौर पर देश की जनता को आजादी के आंदोलन की विभिन्न स्थितियों, कारणों, कार्रवाई और योजनाओं व निर्णयों से अवगत कराना व उनका मन तथा मनोबल बनाये रखना। यही उद्देश्य था। परन्तु आज??
मुझे याद आ रहा है एक दिन हमारे पी. जी. टी. हिन्दी सर (श्री प्रदीप कुमार मिश्रा) ने पत्रकारिता के वर्ग में कहा था कि

"अखबार  दैनिक दुर्घटनाओं का दस्तावेज है "


अब साहब सुंदरता किसको अच्छी नहीं लगती! चाहे वो सुंदर फूल हो या कली या फिर कोई वाक्य (जैसे आवारा आशिक सुंदर लडकियां खोजते हैं वैसे ही कलमगसिट जीव सुंदर वाक्य)। अखबार की यह परिभाषा बङी सटीक  मार कर रही है और शब्दों का संयोजन तो देखिये।  द - द के इस संयोजन ने, जब पहली बार सुना तभी मेरे 'रोम' में अपनी जगह बना ली। मजेदार बात यह है कि सनी देओल - करिश्मा कपूर की "अजय" में रूठे प्रेमी को मनाने के लिए प्रेमिका भी  धमकी देती है-

... आज मेरा दिल तोड़ के जा, कल पढ लेना अखबार में, इक लैला ने जान गवां दी मजनूं के प्यार में... 


 इन दिनों प्रकाशित  दैनिक दुर्घटनाओं का स्तर देखिये। हम कोई भी अखबार उठा लें। पूरे एक महीने का ले लिजिए। सबकी हेडलाइन और टैग लाइन एक संवेदनशील व्यक्ति को डराती है। मन में एक अजीब प्रकार का भय और अच्छे भविष्य के प्रति अनिश्चितता पैदा करती हैं। नाकारात्मकता को  पत्रकारिता के अनुभव व ज्ञान  की पूरी समझ व ऊर्जा के साथ, तस्वीरों से सजा कर परोसा गया होगा। घोटाले , भ्रष्टाचार, रेप, वी आई पी गिरफ्तारीयां, लूट, हत्या, तेजाब फेंकी, बलवे, दंगे, राजनीतिक समीकरण व शत्रुता, नस्लीय सोंच भङकाने वाली आदि हेडलाइन्स!! ये मैने सिर्फ लिखा ही नहीं है। आज पूरे तीन घंटे का समय देकर एक महिने की दो अखबारों की हेडलाइन्स का विश्लेषण कर कहा है।उपर जो तस्वीर है वह उनकी बानगी है।  अखबारों का नाम लेने से कोई फायदा नहीं। आप भी यह प्रयोग स्वयं करके देखें। आप यह सोंचने पर मजबूर हो जायेंगे कि इतनी नकारात्मकता आप अपने पैसे से वर्षों से खरीद रहे हैं। श्रद्धेय डॉ कलाम बहुत चिंतित रहते थे । उन्होंने अपने किताबों में विभिन्न घटनाओं के माध्यम से इसका उल्लेख किया है। इसरो से संबंधित खबरें जो छपती हैं वो सकारात्मक होती हैं। नव चैतन्यता देती हैं। 

मुझे लगता है कि भारतीय अखबार अभी भी स्वतंत्रता पूर्व वाले फार्मूले पर चल रहे हैं। अरे भई, वह तात्कालिक, उद्देश्य-प्रेरित  तथा आंदोलन व संघर्ष के प्रति सकारात्मकता का माहौल बनाये रखने के लिए की गई पत्रकारिता थी।( कुछ समाज संस्कार की पत्रिकाओं को छोड़ दें) 


पर क्या आज भी जरूरत है लूट, हत्या, नित्य होते रेप(!!) आदि को हेडलाइन बनाने और प्रथम पृष्ठ पर जगह देने की? आखिर कैसा समाज चाहते हैं हम? क्या  पत्रकारिता का लक्ष्य ' टी आर पी और रिडर्स नंबर' बढाने वाले विषयों पर चर्चा चलाते रहना है? 

अगर ऐसा है तो हम गलत जा रहे हैं। आज लगभग हर राजनीतिक दल का पोशुआ 'मिडिया हाउस' है। जिसकी सरकार है उसके पक्ष में चारण की तरह या फिर विपक्ष में विरोधी की तरह ये खङे रहते हैं। समाचार और सच में कितना अंतर होता है इसको मैने स्वयं देखा और अनुभव किया है। इसपर फिर कभी। आज समाचार बनाये जा रहे हैं और घटनाओं को रच कर हेडलाइन बन रहे हैं। एक महिने के अखबार इसके गवाह हैं। 

मैं व्यक्तिगत तौर पर पचास - साठ लोगों को जानता हूँ जिनके समर्पित प्रयासों से उनके कार्यक्षेत्र में आश्चर्यजनक रूप से सकारात्मक परिवर्तन हुआ है। अगर वो खबर बने तो वैसे सैकड़ों हैं जो इन सब क्षेत्रों में साहस कर निकल पङेंगे। समाज में सकारात्मक और थोड़ा अलग काम करना बहुत कठिन है मगर समय की मांग है। अब अखबारों को अपने हेडलाइन्स के संबंध में गंभीरता से विचार करना पड़ेगा नहीं तो सोशल मिडिया के "केन्फोलिस, योर स्टोरी,  आदि सकारात्मक समाचार वाली वेबसाइटें इनके सामने खड़ी हो जायेगी। 

दाऊद, दलित, दल, आदि की भङकाऊ खबरें अंदर के पृष्ठों में उतने ही जगह में देना जितने में अभी शहीदों की शहादत की खबर छपती है! सकारात्मक समाचार खोजना बहुत मेहनत वाला काम है और नाकारात्मक समाचार घर से निकलने पर ही मिलना शुरू हो जाता है। इस नकारात्मकता का कारण भी कहीं न कहीं वो सजी हुई खबरें हैं जो आज फिर एक अलग स्थान पर थोड़े परिवर्तित रूप में दिख रही है। 

हजारों पाठक देश-विदेश, संपादकीय और राष्ट्रीय खबर पढ कर अखबार रख दिया करते हैं। कभी-कभी मैं भी अब ऐसा ही करूंगा और इंतजार कर रहा हूं कि कब एक सकारात्मक खबर हेडलाइन बने। 

पितामह भीष्म ने सर शैय्या पर पङने के बाद उपदेश करते समय कहा था "जैसा अन्न वैसा मन"। 

मुझे लगता है " जैसा पठन वैसा चिंतन, जैसा चिंतन वैसा जीवन "


हमारे अखबार दैनिक दुर्घटनाओं से घटनाओं और फिर सुघटनाओं तक के दस्तावेज बनें और सकारात्मक सोच व शक्ति के संवाहक के रूप में पुन: 'उदंत मार्तंड' बन भारत के आसमान में चमके तभी विचार क्रांति प्रत्येक व्यक्ति तक पहुंचेगी। 
आपका जीवन सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर हो इसी शुभकामना के साथ आपके अंदर स्थित प्रज्ञ आत्मा को प्रणाम करता हूँ। 

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2017

'आई लव यू' का अर्थशास्त्र

टाला झिल पार्क में बैठा हूँ। बहुत ही खूबसूरत है यह पार्क। यहाँ सुबह-सुबह लोग 'मार्निंग वाल्क' के लिए आते हैं। आम, गुलमोहर, शिशम, सफेदा, अशोक आदि के सुन्दर वृक्ष, सजावटी पौधों की करीने से कटाई की हुई कतारें, गुलाब, जावा, रात रानी, चमेली के फूल और इन सबके बीच में विशाल तालाब! आहा क्या फिज़ा बनती है सुबह में! आजकल तो अंग में हल्की प्यारी सिहरन करने वाली शीतल वसंती हवा और उगते हुए सूरज के साथ ही रंगबिरंगी चिड़ियों की चहचहाहट मन को मोहित कर ले रही है। फिर मंजरों के भार से झुक गयीं आम की डालियों से जब कोयलिया कूहूऊऊऊ - कूहूऊऊऊ करती है तो प्रकृति की यह मनोहारी सुषमा मन को अनुपमेय आनंद का अनुभूति कराती है। मैं तो समय का ज्ञान भूल जाता हूँ।

इसी झील पार्क में शाम को सभी बेंचों पर वर्षों से प्रेमालाप करते आ रहे हैं प्रेमी युगल। इनकी ही प्रेरणा से मेरा मन हुआ कि थोड़ा सा, इनके वर्ष भर प्रतिक्षा के बाद आने वाले 'वेलेन्टाइन डे' के बारे में जानें। चातक के स्वाति जल की आश!!!
खैर इसके इतिहास और रीति परंपरा के बारे में अब सब जानते हैं सो मैं उधर नहीं जाऊंगा। आजकल भावनाओं को व्यक्त करने के लिए भी कुछ वस्तु विशेष की जरूरत पड़ती हैं। 'माॅल संस्कृति' में मुहब्बत भी गुलाब, चॉकलेट, टेडी बियर, रिंग आदि के द्वारा बयां की जा रही है। नहीं तो चित्रा जी की आवाज़ में कहूं तो - 

"कौन कहता है मुहब्बत की जुबां होती है

ये हकीकत तो निगाहों से बयां होती है"

अस्तु, जैसा युग वैसा उपक्रम। सो मैने सोचा जरा मुहब्बत के इस सजे हुए बाजार पर भी नजर डाली जाए। मैं जैसे- जैसे इस बाजार के नजदीक गया, आश्चर्य बढता गया। आप भी जैसे -जैसे आगे बढ़ेंगे आपको भी आश्चर्य होगा।

ये 'आई लव यू का अर्थशास्त्र' इतना बड़ा होगा,कल तक मुझे इसका अंदाज़ भी नहीं था । बाजारों में घुमने के बाद, जब विभिन्न संस्थानों के रिपोर्ट देखे तो समझ में आया कि हमारे देश के बेरोजगार प्रेमी भी कितने उदारमना ग्राहक हैं इस 'माॅल संस्कृति वाले मुहब्बत के युग में'!!

जी न्यूज ने एक स्वतंत्र सर्वे एजेंसी की रिपोर्ट 13 फरवरी 2013 को जारी की थी। यह रिपोर्ट बङे मेट्रोपॉलिटन शहर के 800 एक्जीक्यूटिव, 150 शैक्षणिक संस्थानों के 1000 विद्यार्थियों, आईटी कंपनी में कार्यरत युवाओं के बीच सर्वे के बाद तैयार की गई थी। इसमें मुख्यतः यह पुछा गया था कि आप इस वेलेन्टाइन डे पर कितना खर्च करने की योजना बना रहे हैं? किस वस्तु पर कितना खर्च करेंगे आदि से संबंधित प्रश्न थे।
मजेदार बात यह सामने आयी कि पुरुष महिलाओं से दुगुना खर्च करते हैं और 40-50 आयु वर्ग के लोग भी खुब खरीदारी करते हैं। आंकङे खुब गुदगुदायेंगे मगर मोटे तौर पर बता दें कि साल 2013 के वेलेन्टाइन सप्ताह में भारतीयों ने ₹ 15,000 करोड़, साल 2014 में ₹ 18,000 करोड़ (ट्रेक. इन की खबर) और विगत वर्ष ₹16,000 करोड़ रुपये की दिलफेंक खरीदारी की। 

प्रेमी ग्राहक वर्ग में 18-24 आयु वर्ग के लोगों ने ज्यादातर चाकलेट, फूल, टेडी बियर आदि का उपहार लेन देन किया। 25+ आयु वाले गहने, गैजेट्स, घड़ी, स्मार्ट फोन के उपहार में खर्च किया।35+ आयु वर्ग वाले इसके साथ-साथ रात में बाहर किसी बड़े रेस्तरां में भोजन करने, टूरिस्ट प्लेस पर घुमने आदि में भी खर्च किया। इसमें ज्यादातर बङे कार्पोरेट जगत के कर्मचारी, आईटी प्रोफेशनल्स व बीपीओ में कार्यरत लोग शामिल हैं।

अस्तु ये आंकड़े आपको बोझिल न कर दें इसलिए हम वो आंकड़ों का काम एसोचैम के इस साल के इस अनुमान के साथ ही खत्म कर देते हैं। इस बार एसोचैम ने कहा है कि इस वेलेंटाइन सप्ताह में भारतीय बाजार ₹ 22,000 करोड़ का होगा। यानी पिछले साल से लगभग 40% ज्यादा!! यार, इतना तो आय में वृद्धि भी नहीं होती एक साल में!!!

गौर करने वाली बात यह है कि ये सर्वे चंद लोगों और कुछ बङे शहरों के बीच ही कराये जाते हैं। परन्तु द्वितीय और तृतीय श्रेणी के भारतीय शहरों के बाजार भी इस सप्ताह में भारी मांग के कारण अच्छी कमाई करते हैं। फिर शहरों से जुड़े गांव व विभिन्न राज्यों के जिला केन्द्र में रहने वाले लोगों की संख्या जो इस आकर्षक सप्ताह में खुब खरीदारी करती है, इन आंकड़ों में नहीं आ पाती। इस्टीमेशन के आधार पर आंकड़े बता दिये जाते हैं परन्तु वास्तविकता यह है कि बाजार इन आंकड़ों से कही ज्यादा बङा है।

अब बात जब अर्थतंत्र की हो रही है तब इस वेलेंटाइन सप्ताह के बाजार के कारण होने वाले नफा नुकसान पर भी थोड़ी बात होनी चाहिए। गौरतलब है कि ज्यादातर उपहार के लिए प्रयुक्त वस्तुएं छोटे उद्योगों, कुटिर उद्योगों और किसानों के उत्पाद से संबंधित हैं चाहे वो चाकलेट, केक, मिठाई, या फिर मोमबत्ती, टेडी बियर, या गुलाब हो। पर्यटन स्थलों पर भी छोटे दुकानदारों को ज्यादा ग्राहक मिलते हैं। बङे ब्रांड भी प्राथमिक तौर पर छोटे-छोटे कामगारों या कुशल, अर्द्धकुशल मजदूरों से काम करवाते हैं। इससे गैजट्स एसेम्ब्लींग, गहनों की कढाई और सजावट आदि के पेशे से जुड़े लोगों को काम मिलेगा। उनकी आय में वृद्धि होगी।

भारत में वेलेन्टाइन डे के सांस्कृतिक पक्ष पर ज्यादा कुछ नहीं क्योंकि अपना विषय अर्थतंत्र केन्द्रीत है। फिर भी। भारत में पारंपरिक रूप से वेलेन्टाइन डे तो नहीं मनाया जाता रहा है परन्तु पश्चिम के इस नाम से अलग लेकिन थोड़े अलग तरीके से भारत में भी 'मदनोत्सव', वसंतोत्सव जैसे प्रेम केंद्रीक उत्सव मनाये जाते रहे हैं। वाम मार्गी साधना (कृपया इसे वामपंथ से न जोड़े, यह एक साधना पंथ है) में साधक तो मदनोत्सव को बङे धुमधाम से आयोजित करते हैं और अपनी साधना को ऊच्च स्तर पर ले जाने के स्तर को परखते हैं।

खैर, संस्कृति के इस संक्रमण काल में विभिन्न प्रकार के मत सामने आयेंगे। चर्चाएं होंगी। माहौल में थोड़ी ऊथल पुथल रहेगी। जैसा कि साधारणतया हर संक्रमण के दौरान होता है।
प्रेम के नाम पर बढते इस बाजार ने मेरे मन में एक स्वाभाविक प्रश्न को जन्म दिया है। 

अखिर इस संस्कृति के संक्रमण काल में बढ क्या रहा है दो संस्कृतियों या व्यक्तियों के बीच प्यार या बाजार??

सुधि पाठक!
आप चिंतनशील हैं। हमें सोचना चाहिए क्योंकि बाजार तो व्यक्ति के जीवन में प्रेम लाने में अत्यन्त अल्प मात्रा में सहायक है परन्तु जीवन का उद्देश्य है आनंद जो प्रेम-पथ से ही पाया जा सकता है। प्रेम बढे प्यास नहीं, यही हमारे ऋषि परंपरा और भारतीय संस्कृति की गौरव और हमारे स्वस्थ समाज के लिए आज के समय की मांग है।

राष्ट्रस्योत्थानपतने राष्ट्रियानवलम्ब्य ही
(राष्ट्र का उत्थान या पतन राष्ट्रियों के ऊपर ही निर्भर करता है)
मैं आपके अंदर स्थित प्रज्ञ आत्मा को प्रणाम करता हूँ।
उत्तिष्ठ भारतः 

सोमवार, 30 जनवरी 2017

गांधी वध या हत्या??

साहब वध हो या हत्या, जीव की जीवन लीला तो समाप्त हो ही जाती है। बस शब्दों के प्रयोग और अर्थ है कि हमें उलझाये रहते हैं। मगर अर्थ के साथ-साथ अंतर्निहित भाव को महसूस करना महत्वपूर्ण है। अब आप ही देखिये न, बकरीद में गाय काटी जाए तो उसे कुर्बानी कहते हैं और मांस व चर्म के लिए काटी जाए तो कत्ल कहते हैं! साहब बेचारी गाय तो बकरीद में भी मांस और चर्म के रूप में ही उपभोग की गई और बाद में भी! मगर कत्ल और कुर्बानी के नाम पर अलग-अलग तरह का बर्ताव हुआ। गाय मरी!

अगर हमारे देश के कुछ जलते हुए ऐतिहासिक प्रश्नों पर समीचीन और समग्रता से इमानदारी पूर्वक विचार करने से बचा गया है तो उसमें से एक प्रश्न गांधीजी के अंत से जुड़ा है। आज इस चर्चा में मैं पूरी गहराई में नहीं जाऊंगा क्योंकि आप सुधि पाठक की धैर्य-परीक्षा नहीं करनी। मेरे मन में कुछ छोटे-छोटे प्रश्न उठते रहते हैं। फिर यदा कदा उन्हें बहला फुसला कर शांत कर देता हूँ। परन्तु आज 30 जनवरी को इनके हलचल को शांत नहीं कर पा रहा हूँ। हम दोनों के पास समयाभाव है सो संक्षिप्त में ही - गांधीजी का वध हुआ या हत्या हुई??
साधारणतः इस प्रश्न का उत्तर खेमों में बंटे हुए विद्वान अपने खेमें की भूत से भविष्य तक की चिंता करने के बाद तदनुसार देते हैं। एक ऐसी स्थिति खङी कर दी जाती है कि सत्य का आभास भर हो मगर सत्योद्घाटन न हो। मेरा जन्म गुलाम भारत में नहीं हुआ। न सद्यस्वतंत्र भारत में। हमारी पीढ़ी तो 'लिब्रलाइजेशन' के बाद के भारत को देख रही है। फिर ऐसे प्रश्नों के लिए हम संबंधित पुस्तकों और अपने चिंतन शक्ति पर आश्रित हैं। उभय पक्ष को पढना, समझना और मनन करना होगा। गांधी जी के अंत को समझने के लिए 1946 से 1948 के भारत को देखना पड़ेगा। उस समय के कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं की थोड़ी चर्चा करते हैं।

पाकिस्तान के निर्माण के लिए कलकत्ता को जिन्नावादीयों ने एक प्रयोगशाला के रूप में चुना क्योंकि यहाँ मुसलमानों की संख्या अधिक थी। 'बंगाल का प्रधानमंत्री' सुरावर्दी भी मुसलमान! 1946 साल 'द ग्रेट कलकत्ता किलिंग'!! आप कभी समय निकालकर विकिपीडिया में ही पढ लें। कहते हैं सुरावर्दी स्वयं उसकी मानिटरिंग कंट्रोल रूम से कर रहा था।खैर, शायद शहर था, लोग सक्षम थे। मंसूबे में सफलता नही मिली। परन्तु। हां जी परन्तु पाकिस्तान के निर्माण की प्रथम सफल प्रयोगशाला बनी - नोआखाली!!
अल्पसंख्यक हिन्दू थे। अत्याचारों की पराकाष्ठा से गुजर कर हिन्दू शून्य बनाया गया नोआखाली को। हिन्दूओं को इस विपत्ति से बचाने में कांग्रेस और गांधीजी असमर्थ रहे। पूर्णतः। शायद हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई की एकता और मुस्लिम लीग के राजनैतिक पेंच में फंसी रह गयी कांग्रेस और गांधीजी अहिंसा के नाम पर नोआखाली को कुर्बान कर दिये।
इधर पंजाब और काश्मीर जल रहे थे। सिंध, लाहौर, रावलपिंडी इन सब प्रांतों में मुस्लिम लीग ने अपना नोआखाली माॅडल लागू किया था। कांग्रेस और गांधीजी भी अपने-अपने माॅडल पर काम कर रहे थे।
आप जरा सोचिए तो कि जिस देश की जनता ने 1905 में बंगाल विभाजन को नहीं माना, वह किन परिस्थितियों में हिन्दुस्तान के विभाजन का दंश झेली होगी?
इन घटनाओं से देश की बहुसंख्यक जनता के मन में भय, अनिश्चितता, अनहोनी की आशंका और क्षोभ बढता जा रहा था। देश बंटा। कांग्रेस को सत्ता स्थानांतरित हुई। नेहरू व जिन्ना के स्वप्न साकार हुए मगर दिल टूटे लोगों के। संसार उजरा सिंध के व्यापारियों का। 'रावलपिंडी का बलात्कार' देखा दुनिया ने। रेलगाड़ियों ने लाशें ढोयीं। दिल्ली और बंगाल एवं निकटवर्ती प्रांत राहत शिविरों में तब्दील हो गए। ऐसी परिस्थिति में गांधीजी के पाकिस्तान को 55 करोड़ देने की जिद ने सरकार एवं चिंतनशील व्यक्तियों के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी। भारत सरकार का फैसला बदला मगर इन घटनाओं से उद्वेलित गोडसे का मन नहीं बदला। वह मन खंडित भारत को और पिङित हिन्दूओं की व्यथा को सह नहीं पाया। लगा राष्ट्रहित की बलिवेदी पर गांधी जी को बलिदान होना ही होगा। गोली चली। प्रार्थना के जगह निकला,
हे राम!!
इस बिखरे राष्ट्र को आजादी की लड़ाई में एक करने वाले शांति, सत्य और अहिंसा के साधक महात्मा का अंत हो गया हिंसा के रास्ते। गांधीजी ने इस देश को एक साझा स्वप्न दिया था। सभी के योगदान अमूल्य हैं। अतुल्य हैं।
गांधी जी ने गलती की या अपने सिद्धांतों के नाम पर कुर्बान होने दिया नोआखाली को, नेहरू मोह और कांग्रेस की एकता के नाम पर टूट जाने दिया दिलों को बंट जाने दिया भारत को? गांधीजी मजबूर हो गए थे। मेरा यह स्पष्ट मानना है कि मोह, सिद्धांत और राजनैतिक पेंच में फंस गए थे बापू।
इस त्रिकोणीय बाधा ने जनभावना और भारतहित को उनकी आंखों से दूर रखा।
नाथूराम गोडसे के कृत्य से मैं असहमत हूँ पर भावना से सहमत ठीक वैसे ही जैसे गांधीजी के पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये देने की जिद के पिछे की भावना से सहमत हूँ परन्तु अनशन से असहमत। मेरे इस मत से सहमति अथवा असहमति प्रार्थनिय नहीं है।
उभय पक्ष, तत्कालीन परिस्थिति और कृत्यों की भावना सब हमारे समक्ष हैं। अब वध हुई या हत्या हमें सोचना है।
'गांधीजी की शिक्षा और उनका तत्वज्ञान 'नामक पुस्तक में श्री राजगोपालाचारी लिखते हैं कि "सरदार पटेल के यह शब्द थे कि गांधी जी पाकिस्तान को 55 करोड़ देने का हठ कर बैठे, जिसका परिणाम उन्हें उनके वध से मिला"
मेरा भी यही मत है कि राष्ट्र की बलिवेदी पर एक महात्मा का प्राणोत्सर्ग हुआ। समाज में समता, समरसता, एकता और प्रेम का संदेश और अपने सत्य के प्रयोग से कभी नहीं डिगने वाले महात्मा गांधी को उनके शहादत दिवस पर शत शत नमन और आपके अंदर स्थित प्रज्ञ आत्म को प्रणाम करता हूँ।

गुरुवार, 12 जनवरी 2017

आओ साथी दीप बनें

सुबह-सुबह मोबाइल का अलार्म बज रहा था। अचानक हङबङा कर उठा। बगल में पङा हुआ था - उत्तीष्ठत जाग्रत! रात को सोते समय पढने की बिमारी है न! कन्याकुमारी में विवेकानंद शीला स्मारक के कर्मवीर माननिय एकनाथ रानाडे जी द्वारा संकलित स्वामी विवेकानंद की वाणी और लेखों का संग्रह।चेतना को अनुप्राणित कर देने वाला। ईवेंट रिमांइडर वाला एप्लिकेशन बता दिया - 12 जनवरी, युवा दिवस, स्वामी विवेकानंद का जन्मदिन!

कुछ कार्यक्रमों में शामिल होने का सौभाग्य मिला। स्वामीजी के सजाये हुए फोटो पर गणमान्य लोगों ने माल्यार्पण, पुष्पार्पण किया। प्रदीप जलाये गये।नारे लगे - स्वामी विवेकानंद, अमर रहे - अमर रहे ;विवेकानंद के स्वप्नों का भारत, हम गढेंगे - हम गढेंगे आदि आदि।
इन नारों के शोर में मेरा चंचल मन और चंचल हो गया। अनायास मैं नवोदय विद्यालय सिवान के एसेंबली हाॅल में चला गया। साल 2013। स्वामी जी का 150 वां जन्मदिन महोत्सव। "हमारे महापुरुषों को हमने पत्थर की मूर्तियों के रूप में चौराहों पर सजा दिया है। उनके जन्मदिन और पुण्यतिथि पर माल्यार्पण करने और फूल चढ़ाकर फोटो खिंचवाने का रस्म निभाते हैं हम। उनके जीवन का संघर्ष और उनके आदर्श हमारे जीवन से गायब हो गए हैं...." इतना स्मरण होते ही मेरी चेतना फिर लौट आती है। बच्चों के बीच खीर और जलेबी बांटा जा रहा है। मेरे कान में गूंज रहे हैं पी जी टी मैथ सर (श्री अवधेश कुमार शर्मा, जवाहर नवोदय विद्यालय, सिवान) के वो शब्द जो उन्होंने 150 वीं जयंती के अवसर पर कही थी।
प्रिय साथी 12 जनवरी को भारत सरकार ने 1985 में राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में घोषणा की थी। तब से आज तक अनुष्ठान वर्षानुक्रम से होते आ रहे हैं। हम भी कभी न कभी इसके साक्षी रहे होंगे। ऐसे अवसरों पर कार्यक्रमों का आयोजन और अन्य कर्मकांड आवश्यक हैं, उनका भी अपना महत्व और प्रभाव है परन्तु उससे भी ज्यादा आवश्यक है उस महापुरुष के आदर्शों का स्मरण, और तदनुसार यथासंभव कार्य में रूपांतरण। स्वामी विवेकानंद की वैश्विक स्तर पर पहचान - THE HINDU MONK OF INDIA ।पर उनको सबसे ज्यादा प्यार था - पुण्यभूमि भारत और दरिद्रनारायण से। उन्होंने हमें गुरुमंत्र के रूप में दिया - स्वदेश मंत्र!!
उनकी सारी योजनाओं के केन्द्र में रही भारत जननी और उनके प्रिय आशास्पद कार्यकर्ता - युवा, युवा, युवा!
स्वामी विवेकानंद ने कहा था -
"जब तक लाखों लोग भूखे और अज्ञानी हैं तब तक मैं उस प्रत्येक व्यक्ति को कृतघ्न मानता हूँ जो उनके बल पर शिक्षित हुआ और अब वह उसकी ओर ध्यान नहीं देता "

हम सब इस बात से सहमत होंगे कि हमारे देश में असमानता की खाई बहुत गहरी और चौङी है।आंकङे यह बताते हैं कि हर तिसरा आदमी गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने को मजबूर है। फिर जहां भोजन, पानी व आवास की सही और समुचित व्यवस्था नहीं है, वहाँ पर शिक्षा की स्थिति पर सोचने पर ललाट पर चिंता की रेखायें खिंचनी स्वाभाविक है। भारत की आर्थिक राजधानी में एशिया का सबसे बड़ा स्लम है। कलकत्ता, चेन्नई और दिल्ली की भी यही दशा हैं। महानगरों में दैनिक मजदूरी पर आश्रित परिवारों के बच्चों का भविष्य केवल शिक्षा ही सुधार सकती है। परन्तु शिक्षा की व्यवस्था??
अपर्याप्त। स्वामी जी के दरिद्रनारायण? उपेक्षित! सरकारी तंत्र की अपनी मजबूरी और व्यवस्थागत समस्याएं हो सकती है। परन्तु क्या हम भी मजबूर मानते हैं स्वयं को?? क्या अज्ञान के गहन अंधेरे में भटकता प्यारे भारत का भविष्य वह कृषकाय बालक हमें झकझोरता नहीं? जिन तोतली जुबानों से ककहरा दोहराया जाना चाहिए वे ग्राहकों से खाने का आर्डर मांगते समय हमें धिक्कारते नहीं?? क्या महापुरुषों के जन्मदिन और पुण्यतिथि पर इन बच्चों में बिस्कुट, चॉकलेट, खिर, जलेबी आदि बांट कर और उनसे ताली बजवाकर हम संतुष्ट हो सकते हैं??
हम अगर यह पढ सकते हैं तो शिक्षित हैं। हां, इस दौर में एक विद्यार्थी के रूप में हमारे सामने हमारे अपने भविष्य निर्माण की चुनौती है। कठिन समय है। हम अभी बेरोजगार भी हो सकते हैं मगर सच यह भी है कि हम बेकार नहीं हैं। हमारे पास शिक्षा है, इसे हम कुछेक घरों में बांट सकते हैं। कुछ को अंधेरे से बाहर निकाल सकते हैं। सच मानिये खोजने से हमारे आसपास ऐसे बच्चे हैं जिन्हें हमारी जरूरत है। बहुत जरूरत है। हम अपने मनोरंजन के समय का सदुपयोग एक अच्छे भारत के भविष्य निमार्ण के लिए कर सकते हैं। हम सिर्फ एक छोटे भाई या बहन को एक घंटे रोज पढाने का अणुव्रत ले लें तो हमारे महापुरुषों के, हमारे अपने,सपनों का भारत अवश्य अवतरित होगा। भारत एकदिन विश्व गुरु अवश्य बनेगा। बस उस महान प्रकाशपूंज में एक दीप हम भी हों। हमे यह सुनिश्चित करना होगा। स्वामी विवेकानंद की जयंती पर हम यह वादा स्वयं से करें - एक दिन, एक घंटा, एक भविष्य, एक भव्य भारत के लिए!!
स्वामी विवेकानंद के द्वारा कठोपनिषद की वह वाणी - उत्तीष्ठत् जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत, हमारा आह्वान कर रही है। उठो, जागो और लक्ष्य की प्राप्ति तक मत रूको।
पूरे भारत को शिक्षा के प्रकाश पूंज से आलोकित करने के ध्येय से , आओ साथी दीप बनें...
आप सभी का यह सुस्वप्न पूर्ण हो, प्रयास को उत्साह का वातावरण और साधना को आवश्यक साधन मिले माँ भारती से इसी प्रार्थना के साथ आप सभी के अन्दर स्थित प्रज्ञ आत्मा को मैं प्रणाम करता हूँ।

उत्तीष्ठ भारतः