गुरुवार, 15 सितंबर 2016

समाज और सरकार आरक्षण पर पुनर्चिंतन करे


हां यह सत्य है कि आरक्षण के कारण वे सारे लोग त्रस्त हैं जिन्हे आरक्षण का लाभ नही मिलता एवं जिनके पास चल व अचल संपत्ती का घोर अभाव है।आरक्षण के दंश का भोक्ता मैं भी हूँ।परन्तु मैं अपने लिए आरक्षण की मांग करने से पूर्व इसके व्यवहारिक रूप पर गौर करना पसंद करूंगा।

आखिर आरक्षण की जरूरत क्यो हुई?जब मै सोचता हूँ तब चीर परिचीत उत्तर आते हैं-
तथाकथित उच्च जाति के लोगों के पूर्वजों ने तथाकथित दलित व आदिवासी(?) समुदाय पर जुल्म किये जिससे ये लोग आर्थिक और सामाजिक रूप से इतने पिछङ गये कि  सामान्य जीवन जीना भी दुभर हो गया।इसके साथ -साथ बेगारी और शारीरिक शोषण की बात भी की जाती है।ऐसे में इन्हे सामान्य जीवन मे लाने हेतु राज्य के शासन का संरक्षण आवश्यक लगा सो इस वर्ग के लिए विशेष सुविधायें देने की बात संविधान सभा ने स्वीकारी और इनके लिए विभिन्न सरकारी सेवाओं व सुविधाओं में आरक्षण का प्रावधान किया गया।इसी धर्रे पर चलते हूए अन्य पिछङा वर्ग भी बना,उसमे भी कई जातियां शामिल हो गयीं।

ठीक है।पूर्वजों की गलती का प्रायश्चीत होना चाहिये।10 साल की जगह 65 साल तक हुआ।
अब प्रश्न उठता है कि क्या सोचकर संविधान सभा ने 10 साल का समय लिया ,इनके जीवन स्तर में सुधार करने हेतु?सही है,आवश्यकता पङने पर समय बढाने की भी बात थी।
परन्तु मैं जानना चाहता हूँ कि आखिर ये प्रायश्चीत व्रत कब तक चलेगा?
आखिर 65 सालों तक क्या करती रही सरकारें?क्या शताब्दियों तक ऐसा ही चलता रहेगा?जैसा कि दिख रहा है नीत नयी जातियां व समुदाय इसमे शामिल हो रहे हैं।कितने लोग इसमे शामिल होने की रणनीति बनाने में व्यस्त हैं।अभी जाटों की मांग मानकर हरियाणा को शांत कराया गया है तो उधर गुजरात के पाटिदार फिर से भीङने की तैयारी में हैं!
ब्राह्मण समाज रैली के लिए तैयार है।भूमिहार राजपूत भी अपनी संख्यात्मक आंकङे जुटा लिये हैं!
तो क्या अब यही होना बाकी रह गया है??
प्रथम द्रष्टया सरकारों की काम करने की इक्षाशक्ति का अभाव और गंदी राजनीति का प्रभाव है कि जिसके कारण संविधान सभा मे तय  समय से 6 गुणा ज्यादा समय लेने के बाद भी उद्देश्य पूरा नही हुआ।नही तो आज "मैं भी पिछङा हूं,मुझे भी आरक्षण चाहिये"  की मांग करने वाली जातियां सामने नही आती।दूसरी बात दलिय एवं स्थानिय राजनीति ने  लोगों में राष्ट्रीय चेतना जगाने के बदले जातिय कट्टरता को बढावा दिया।इसी का परिणाम है कि 7वीं -8वीं का बच्चा जो महाराणा प्रताप की मातृभूमि के लिए 20 वर्षों के त्याग को नही जानता परन्तु "राजपूत की शान" वाला फोटो फेसबूक पर पोस्ट करता है।ऐसा निश्चीतरूप से उसकी मां ने नही हमारे समाज ने सिखाया है।समाज मे व्याप्त यह जातिय कट्टरता और "व्यवहारिक राष्ट्रीय चेतना" का अभाव ऐसे मांगों एवं आंदोलनों की जमीन तैयार करती है ।तात्कालीक परिस्थिती खाद पानी देती है और अंधकारमय भविष्य की डरावनी बाते सुना कर जाति के ठेकेदार देश जलाने के लिए भीङ को भङका देते हैं।
मै कहता हूं भारत ही तो पिछङे वर्ग में शामिल है!अपने लिए जापान-अमेरिका की तरह सङके,अस्पताल ,पानी ,24×7 बिजली ,शिक्षा ,आय मांगने वालों !
कभी उनकी तरह देश को आगे ले जाने के लिए काम करो।वह व्यहारिक राष्ट्रियता अपने आचरण मे भी लाओ।मै बार बार व्यवहारिक राष्ट्रिय चेतना इस लिए कहने पर मजबूर हो रहा हूं कि- यहां जब क्रिकेट मैच हो तो देशभक्ति जगती है परन्तु कोई किसी खेल में देश के लिए खेलने और स्वर्ण पदक लाने का स्वप्न नही देखता!जब शहादत होती है तो श्रद्धांजलि देकर देशभक्ति की इतिश्री हो जाती है! अच्छे शिक्षको की कमी से जुझते देश में अधिकांश अच्छे विद्यार्थी पैकेज के सपने देखते हैं अच्छे शिक्षक बनने के नही।हर जगह अपवाद होते हैं सो विषयांतर न हो इसलिए इस फिर कभी।

सोचने वाली मूल बात है कि "प्राइवेटाइजेशन के इस दौर" मे अब आरक्षण की अवधारणा  कितना सफल हो पायेगी? जब सरकारी तंत्र का बोलबाला रहा तब तो 65 सालों मे लक्ष्य प्राप्त हुआ नही तो अब जब नये नये वर्ग और शामिल हो रहें है वे तात्कालिक रूप से जरूर फायदे मे दिख सकते हैं परन्तु इससे भयंकर रूप से देश की सामाजिक सरंचना एवं आर्थिक विकास के साथ गुणात्मक विकास पर असर पङेगा।कल्पना किजिए कि 100 बसों की सीट है और 1000 लोग बैठने वालें हों तब सवार कितने हो पायेंगे??
अब बस वाला जिसको भी और जिस भी अनुपात में आरक्षण दे दे।अब अगर बसों की संख्या बढाने के लिए बस वाला और सभी 1000 लोग यथाशक्ति कार्य में नही लगे तो फिर क्या होगा।सर्वोत्तम की उत्तरजीविता !!नही नही ऐसा नही ।

स्पष्टतः हमे देश की उत्पादन क्षमता बढाने मे अपने अधिकतम योगदान के लिए व्यक्तिगत स्तर पर एवं सांगठिनकरूप से प्रयास करने चाहिए।आरक्षण की चटनी से ,वर्ग भेद एवं नये संघर्ष का जन्म होगा जो समाज के लिए किसी भी रूप मे लाभदायक नही हो सकता,नाही किसी भी वर्ग के सभी लोगों का भला होगा।याद रखें,बस मे सीटें ही कम हैं!
मैं आरक्षण के दंश का भोक्ता होने के बाद भी अपने लिए जाति के आधार पर आरक्षण नही मांगूंगा। आरक्षण को समाजहित मे लागू करने के लिए इसे जाति के बदले आर्थिक आधार पर लागू करने के लिए सरकार पुनर्चिंतन करे।
@विकास(25/02/16)

बुधवार, 14 सितंबर 2016

हिन्दी दिवस पर एक पत्र आपके नाम

प्रिय पाठक

हिन्दी दिवस की औपचारिक शुभकामना स्वीकार करें। मेरा हिन्दुस्तानी मनहिन्दुस्तान में रहने वाले एक हिन्दुस्तानी को "हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं", देने का नहीं कर रहा है। एक चीनी  मैड्रिन दिवस की, एक जापानी जापानी दिवस की, यहाँ तक की एक पाकिस्तानी भी उर्दू दिवस की शुभकामना अपने दूसरे देशवासी को नही देता है। परन्तु हम ऐसा कर रहे हैं। हमारे देश की संकीर्ण राजनीति की क्षुद्रता ने हिन्दी को भारत में असहाय और विवाद की भाषा बना दिया परन्तु हमारी सर्वग्राहि संस्कृति ने इस वैज्ञानिक और सर्व समावेशी भाषा को 130 करोड़ लोगों की बोल चाल की भाषा बना दिया। आज हमे अपनी संस्कृति पर गर्व और हिन्दी पर गौरव का भाव और मजबूत करना चाहिए। डॉ ज्योतिप्रसाद नौटियाल के शोधानुसार विश्व की कुल जनसंख्या का 18 % लोग हिन्दी जानते व बोलते हैं।

आजके वैश्विक स्पर्धा वाले बाजार में हिन्दी जानने वाले लोगो की इस विशाल संख्या ने इंग्लैंड, अमेरिका, चीन जैसे अनेक देशों को मजबूर कर दिया है कि उनकी कंपनियों के कर्मचारियों को हिन्दी का ज्ञान हो। उत्पादों पर नाम हिन्दी में लिखे जाने लगे हैं। ये विकसित देश हिन्दी के ज्ञान के लिए विशेष राशि आवंटित कर रहे हैं।

रही बात भविष्य की तो हिन्दी का भविष्य उज्ज्वल है। आज देश में हिन्दी की पत्र - पत्रिकाये  पाठको के द्वारा सर्वाधिक खरीदी जा रही है। संगणक (💻) मे हिन्दी में बने ओ एस है, कुंजीपटल है। और नवोन्मेष जारी है।

आज के दिन हमे हिन्दी के प्रचार-प्रसार में अनवरत लगे हुए समस्त राष्ट्रभक्तो को ,हिन्दी चलचित्र जगत् के प्रत्येक व्यक्ति को और अपने शुभचिंतकों को हृदय से धन्यवाद देते हुए उनके प्रति कृतज्ञता का भाव व्यक्त करना चाहिए।
हम पिछले 66 वर्षों से हिन्दी दिवस मनाते आ रहें हैं!!बहुत से संकल्प हमने लिए, लक्ष्य रखे न्यूनाधिक उन्हें प्राप्त भी किया। आगे भी हम अपने संकल्प को शिव संकल्प की तरह लेकर पूर्ण करेंगे। हमारा हस्ताक्षर हमारे व्यक्तित्व का परिचायक है। हम सभी जन्म के आधार पर हिन्दुस्तानी है। अतः आज इस अवसर पर हम संकल्प करे कि "आज से मै अपना हस्ताक्षर हिन्दी अथवा अन्य भारतीय भाषा में करूंगा"

आपका संकल्प पूर्ण हो और माँ भारती हमारा मार्ग प्रशस्त करें।
इति शुभम्
विकास...

मंगलवार, 13 सितंबर 2016

बिहार टाॅपर और शिक्षा में नैतिकता

हालंकि जो सत्य है हम उससे मूंह नही चुरा सकते हैं परन्तु एक बार पुनर्चिंतन की आवश्यकता है। हां, मै बात कर रहा हूँ "बिहार टाॅपर" मामले की। आज हमारी शिक्षा नीति, शिक्षण विधि, शिक्षक का दायित्व बोध और शिक्षा के उद्देश्य पर हमारा चिंतन सब शक के घेरे में है। एक विद्यार्थी के नाते मैं, एक अभिभावक, एक शिक्षक एक जिम्मेदार नागरिक के नाते आप,इससे मूंह नही चुरा सकते। हमने इस मुद्दे पर चुटकुले बनाये। चुटकियां ली। राजनैतिक आरोप प्रत्यारोप हुए। परन्तु समस्या के मूल में हम नहीं गये। हम इसे तात्कालिक और एक खास क्षेत्र की समस्या समझ लिया। कुछ दिन बाद ये चुटकुले, आरोप हम भूल जायेंगे फिर ऐसी समस्या उत्तर प्रदेश के डिग्री के बाजार में दिखेगी फिर कभी बंगाल में। ऐसे कर स्थान बदलते रहेंगे, समस्या बढती रहेगी परन्तु शिक्षा का उद्देश्य हमसे कोसों दूर चला जाएगा। आज हमारे पास डिग्री बेचने वाले अनेक विश्वविद्यालय हैं परन्तु विचारणीय यह है कि विद्यार्थियों के गुणात्मक विकास के लिए ये कितनी 'डिग्री तक समर्पित' हैं? इससे पहले की फिर कोई दूसरी रूबी राय सामने आये हम सभी को अपने दायित्व का निर्वहन करते हुए 'सिटर' नही बनना चाहिए। शिक्षक को परीक्षा के दौरान ईमानदार और सचेत होना होगा। अभिभावकों को बच्चों मे सही संस्कार देने होंगे। विद्यालय विद्या दान करे न की डिग्री की दुकान बन जाये। और सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हमे अपने शिक्षा नीति पर पुनर्विचार अवश्य करना चाहिए। काश भारत को दूसरे किसी 'टाॅपर घोटाले' को न देखना पङे।
शिक्षा अपने उद्देश्य से सभी को परिचित करा पाये।
@विकास 🌅🙏

मेरी माँ साक्षर है

  हम सभी सुनते है या देखते हैं या अनुभव है कि माँ अपने संतान की अच्छी शिक्षा के लिए बहुत कष्ट झेलती है। चाहे वोछुपकर खांसना हो या फटी हुई साङी पहनना या वर्षों से संजो कर रखे हुए प्राण-प्रिय गहनों को बेच कर पैसे💷की व्यवस्था करना। दूसरे के घर🏡दाई का काम कर या कपड़े सिलाई कर पैसा व्यवस्था करना हो। भूख मार कर सो जाना हो या पैदल🚶ही बाजार चले जाना या पसंदीदा व्यंजन को बाजार में बिकता देख "अरे ये ठीक से नहीं बनाता, बासी होगा" आदि बहाने बनाकर नही खाना हो, वो हर संभव🙆रास्ते से पैसा💵बचाती है। माँ अपने संतान की अच्छी शिक्षा के लिए सर्वोच्च त्याग भी सहर्ष कर देती है। सभी माताएँ कम या ज्यादा ऐसा त्याग करती है। जिनकी परिस्थिति जैसी होती है। परन्तु विचारणीय बात यह है कि बहुत सारी माताएं अपना नाम नहीं📝लिख पाती है। बैंक🏦मे, डाक📮लेते समय हमने उन्हें अंगुठे का निशान देते हुए देखा होगा। गौर करने पर उनके आंखे में हस्ताक्षर न कर पाने की विवशता साफ दिखाई देती है। यही माँ जब अपने बच्चे🚸के विद्यालय🏫में जाती है और हस्ताक्षर करने के समय अंगुठे का निशान देने के लिए मूक भाव से "पैड" माँ मेरी खोजती है तो उस समय उन्हें सबकी घुरती निगाहें कितना😳शर्मिंदा करती होगी। कल्पना कीजिए कि आप होते उस जगह तो आपको कैसा लगता🙅? ये वही माँ है जिसने अपने बच्चे को इस जगह पढने भेजने के लिए अपनी बिमारी के असह्य कष्ट को भी इस तरह चुपचाप सहा है कि किसी को पता न चले। हमारे भारत में ऐसी हजारो माताएँ है। इनमे एक हमारी माता जी भी हो सकती है। भारत के साक्षरता दर को शत प्रतिशत तक ले जाने के लिए हजारों विद्यालय🏫व विश्वविद्यालय व अन्य संस्थान है। परन्तु इन माताओं के लिए? हाँ, हम प्रौढ शिक्षा के लिए चलने वाले संस्थानों के बारे में सोच💭सकते हैं परन्तुप्रायोगिक तौर पर यह थोड़ा कठिन है। हमारी माँ कहेगी कि -"नही, मेरे पास समय🕒नहीं है, अब मै पढ कर क्या करूंगी, घर🏡के काम कैसे होंगे?" आदि आदि। इसलिए सबसे अच्छा यह नहीहोगा क्या कि हम ही यह निश्चय करें कि - "मै अपनी माँ को कम से कम हस्ताक्षर करना अवश्य सिखाउंगा"। इससे हमारी माता को आगे से कभी भी बैंक🏦में,🏫विद्यालय में, डाकिये के सामने या अन्य कही भी हस्ताक्षर के समय अंगुठे के निशानदेने से शर्मिंदा नही होना होगा। हमारे इस अणुव्रत से एक महत्तम कार्य सिद्ध हो जाएगा और भारत की साक्षरता दर में वृद्धि भी होगी। हमारी माता के साक्षर होने से हमारे परिवार👪में खुशियां, समाज में सकारात्मक उर्जा⚡और देश में आगे बढ़ने की नयी उम्मीद का संचार होगा। तो अगर आप कि माता जी हस्ताक्षर नही कर पाती है तो यह आपका कर्तव्य है कि आप अवश्य ही उन्हे हस्ताक्षर करना सिखाये जिससे उन्हें शर्मिंदा न होना पड़े और आप गर्व से कह सके कि"मेरी माँ साक्षर है"। हम कर सकते हैं, हम करेंगे।@विकास 🙏🙏