गुरुवार, 3 नवंबर 2016

उगी हे सुरुज देव करी भिनुसार

छठ महाव्रत : समरसता का लोकपर्व

कल नहा खा है। अंधेरी रात है। घड़ी की सुई का टिकटिक-टिकटिक सुनाई दे रहा है। बरामदे के बगल वाले कमरे में अपनी खाट पर लेटी हुई दादी बीच-बीच में मधुर स्वर में गाने लगती है। "काच ही बांस के बहंगीया...बहंगी लचकत जाए..."
मेरे पिता जी के जन्म से पहले से ही दादी छठ पूजा करती हैं। कुछ वर्षों से माँ भी कर रही है। इस बार छोटी चाची भी करेंगी। ऐसी ही परंपरा है।बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश में एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी इस व्रत से हजारों सालों से लगातार ऐसे ही जुड़ती चली आ रही है।
कार्तिक मास के चतुर्थी की सुबह से शुरू होकर यह व्रत सप्तमी की सुबह के अर्घ्य के बाद विधिवत् पारण के साथ खत्म होता है। चार दिन चलने के कारण इसे चतुर्दिवशीय महापर्व भी कहते हैं। चूकि सूर्य को पहला अर्घ्य षष्ठी के शाम को ही देते हैं इसलिए इसे षष्ठ महाव्रत या लोकाचार की भाषा में छठ पूजा कहते हैं।अराधना के केंद्र में भगवान सूर्य होते हैं इसलिए इस पूजा को सूर्य पूजा या सूर्य महापर्व भी कहा जाता है। परन्तु छठ पूजा के नाम से यह महाव्रत प्रसिद्ध है।इस पर्व के केंद्र में सूर्य देव होने के पिछे एक पौराणिक कथा है। कहते हैं कि राक्षसों के साथ युद्ध के समय देवताओं ने शिव-पार्वती के ज्येष्ठ पुत्र कार्तिकेय को अपना सेनापति बनाया। वे जब युद्ध के लिए जा रहे थे तब माता पार्वती ने कार्तिकेय की मंगल एवं जीत के लिए एक नदी के किनारे निर्जला व्रत रखा और अस्तांचलगामी सूर्य को उस नदी के जल से अर्घ्य दिया। उस देवासुर संग्राम में देवों की जीत हुई। इस जीत के बाद माता पार्वती ने सप्तमी की सुबह में सूर्योदय के समय सूर्य देव को अर्घ्य दिया। फिर अपना व्रत तोड़ा। इसके बाद से सूर्य देव की पूजा षष्ठ यानि छठ पूजा शुरू हुई।

पहले यह पूजा बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग करते थे। परन्तु काम की तलाश में, व्यापार करने के लिए या अपनी पोस्टिंग के कारण जब इस क्षेत्र के लोग देश के विभिन्न प्रांतों में रहने लगे तब धीरे-धीरे वहां पर भी छठ पूजा शुरू हो गई। मुंबई, कोलकाता, गोवा, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली आदि जगहों पर तो सरकारों को विशेष रूप से पूर्ण व्यवस्था करनी पड़ती है जिससे व्रतियों को कोई असुविधा का सामना न करना पड़े। कोलकाता का गंगा घाट, दिल्ली की यमुना का तीर, मुंबई व गोवा के सागर तट छठ पूजा के दिन जगमग करते हैं। आनंद, आस्था और पवित्रता का पारावार लहराता है संपूर्ण समाज के मन में। अब यह पर्व देश की सीमा के पार विदेशों में भी मनाया जा रहा है। पीढ़ियों से जो लोग छठ पूजा करते आ रहे हैं वे विदेशी धरती पर भी इसे नही छोङे है। नहीं जा सकते तो यहीं सही मगर करेंगे। यही भावना इस कठिन व्रत को भी लोक आस्था का पर्व बना देता है।

यह व्रत सच में कठिन है। कारण है शुद्धता और पवित्रता से कोई समझौता नहीं किया जा सकता। परन्तु हमारे जीवन और प्रकृति के साथ इस तरह मिल जाती हैं इसकी विधियां की व्रती आस्था एवं उत्साह में इस कष्ट को आनंद में बदल देते हैं। साथ में खङा होता है पूरा परिवार व समाज। इस व्रत के पहले दिन यानि कार्तिक मास की चतुर्थी के दिन "नहा-खा" होता है। इस दिन व्रती स्नान ध्यान करके सूर्य देव से प्रार्थना करते हैं कि "हे छठी मइया हम आपका व्रत करने जा रहे हैं।" फिर लौकी जिसे कद्दू 🎃 भी कहते हैं की सब्जी और भात 🍚 खाते हैं। प्याज लहसुन नहीं खा सकते। दूसरा दिन यानि पंचमी के दिन "खरना" होता है। इस दिन व्रती निर्जला उपवास करतीं हैं। सूर्योदय से सूर्यास्त तक। सूर्यास्त के बाद साठी के चावल, गाय का दूध और गुण से नये बने मिट्टी के चूल्हे पर आम की लकड़ी के जलावन से खीर बनाया जाता है। गेंहू की रोटी बनती है। कुछ फल रहता है। फिर व्रती पूजा कर के अपने थाली में से प्रसाद जिसे भोजपूर क्षेत्रों में अगराशन कहते हैं निकाल देते हैं। फिर वो भोग ग्रहण करते हैं तब जाकर परिवार के सदस्यों को यह भोजन मिलता है। व्रत के तीसरे दिन यानि षष्ठी के दिन व्रती निर्जला उपवास करतीं हैं। परिवार के सदस्य बाजार से सारे मौसमी फल, ईंख, बांस की बहंगी (स्थानीय समाज में प्रचलन के अनुसार अन्य नाम भी होते हैं) पानी वाला नारियल, आदि पूजन सामग्री खरीद लाते हैं। शाम को व्रती और परिवार के सारे सदस्य जलाशय के किनारे गीत गाते हुए, नंगे पैर जाते हैं। बहंगी या डलिया माथे पर ले जाने का प्रचलन है। परन्तु अब दूरी और वजन के हिसाब से लोग गाङी का प्रयोग भी करने लगे हैं। विशेषतः महानगरों व बङे शहरों में। सूर्यास्त के समय जलाशय (नदी, तालाब, पोखरा, झील आदि) में उतरकर अर्घ्य देते हैं। फिर अपने घर लौट आते हैं अथवा कहीं-कहीं वहीं पर ही रहते हैं। फिर कोशी भरा जाता है। इसमें ईख को चारो तरफ खङा करके एक पिरामिडनुमा आकार बनाते हैं। फिर उसमें सभी फल, पूरी, ठेकुआ, खजूर सजाते है। दीप प्रज्वलित कर परिवार के सभी सदस्य एकत्रित होते हैं। माता भगिनी पारंपरिक गीत गाती हैं। अगली सुबह यानि सप्तमी के दिन ब्रह्म मुहूर्त में जलाशय तट पर भी इसी तरह कोशी भरा जाता है। फिर सूर्योदय के समय अर्घ्य देकर व्रती अपने घर लौट आते हैं। पारण के बाद व्रत तोड़ दिया जाता है।

इस कष्टसाध्य व्रत को सरस, आनंददायक और उत्साहमय वातावरण प्रदान करते हैं इसके गीत। एकदम स्थानीय, पारंपरिक और बोलचाल की भाषा में। इन गीतों में शास्त्रीयता नही आत्मीयता होती है। राग लय और अलंकार की विशेष समझ नही परन्तु सांघिकता भरपूर होती है। इनमे समाज कल्याण और परिवार के मंगलकामना की प्रार्थना होती है तो प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का भाव होता है।

हिन्दू संस्कृति में पर्व, त्योहार और उत्सवों का अपना-अपना सामाजिक महत्व ोता है। वैज्ञानिक आधार होता है। हम छठ पूजा का पहले सामाज जीवन में पङने वाले प्रभाव और संदेश को देखते हैं। इस पूजा को मुख्यतः हिन्दू परंपरा को मानने वाले ही कुछ लोग करते थे। परन्तु अब अन्य उपासना पद्धति के मानने वाले भी विधिवत् छठ पूजा करते हुए देखे जा सकते हैं। हिंदी भाषी क्षेत्र का सीमोल्लंघन कर आज यह व्रत अन्य भाषा भाषी लोगों के द्वारा भी किया जा रहा है। विभिन्न अवसरों पर जातियों में बंटा दिखने वाला यह विराट समाज छठ पूजा के दिन एक साथ एक जग एकात्म भाव से एकत्रित होता है। इसमें प्रयुक्त पूजन सामग्री प्रायः कृषि उत्पाद हैं और सस्ती है। समाज क हर वर्ग के क्रय शक्ति के अंदर है। अमीर सोने का सेव नही चढा सकता और गरीब माटी का नही। दोनों वही केला. वही सेब 🍎 चढाते है। जलाशय का जल सभी के लिए। इससे समाज के प्रत्येक वर्ग में समता समरसता एकता और प्रेम का विचार जागरण होता है। सभी एक दूसरे की मदद करते हैं। किसी भी तरह व्रती को कोई कष्ट न हो इसका ख्याल सभी रखते हैं। लोग मांग मांग कर प्रसाद खाते हैं। बिना जातिभेद या वर्गभेद के। जैसे खट्टे नींबू 🍋 के साथ में मिठा ईंख और प्रायः स्वादहिन सुथनी सभी तरह के फल एक साथ अर्घ्य के डलिया में रहते हैं उसी तरह हर प्रकार के लोग समाज में एकता के साथ सामंजस्यपूर्ण तरिके से रहे। यही कहतहैं हमारी छठी मइया।

अगर वैज्ञानिक पक्ष देखा जाए तो वह भी जीवन के मंगलकामना के इस व्रत का उज्ज्वल पक्ष हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है। कहा जाता है कि जीवन का प्रारंभ जल से हुआ है। जीवन निरंतरता एवं सुचारू रूप से चलने के लिए ऊर्जा की अनिवार्य आवश्यकता है। जल का प्रतिनिधित्व जलाशय करते हैं और ऊर्जा का केंद्रीय स्रोत हैं सूर्य। निर्विवादित रूप से जीवन के पालक अर्थात देव। छठ पूजा जीवन के सर्जक और पालक के प्रति कृतज्ञता के भाव प्रकाश का पर्व है। यह अपने मे मानव और प्रकृति के बीच इस अन्योनाश्रय संबंध के रहस्य को समाहित किये हुए हैं। इसके प्रसाद को हम देखेंगे तो पायेंगे कि सभी सदःउत्पादित कृषि उत्पाद हैं। शीत शुरु होने से पहले ही ईंख के रस से पाचन शक्ति को ठीक करने का अवसर सभी को मिल जाता है। नीबू, गागल संतरे जैसे फल रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढाने के साथ-साथ शीतकालीन चर्म रोगों से लड़ने के लिए शरीर को तैयार कर देते हैं। चूकि ये फल पूजा के लिए आवश्यक है इसलिए सभी खरीदेंगे। खरीदेंगे तो खायेंगे भी। इससे पूरा परिवार और फिर वृहत्तम रूप में समाज स्वस्थ रहेगा। जिनके घर नही होता उनको सभी दे देते हैं। यह समाज के व्यवहार की सुंदरता है।

चार दिनों तक मगन रखने वाले,शरीर को शुद्ध, मन को निर्मल और आत्मा को उसके केन्द्र अर्थात परमात्मा की ओर ले जाने वाले इस पर्व के अवसर पर परिवार के सभी सदस्यों का एक दूसरे से मिलना जुलना हो जाता है। समाज का प्रकृति से जुड़ाव होता है। यह पर्व सच में समरसता का लोकपर्व है। छठी मइया सबका कल्याण करें और समाज समरसता एकता और प्रेम के इस संदेश के साथ जीवन जीये। विश्व का कल्याण हो यही कामना है।

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